रविवार, 20 जून 2021

बाबूजी

आज अचानक बैठा था, समाचार लिख रहा था तब तक एक समाचार देखा, आज तो बाबूजी का दिन है, मन मस्तिष्क रोम रोम खड़ा हो गया, अनायास ही आंखे भर आईं, और बाबूजी की छवि सामने आ गई, 
बाबूजी एक ऐसा शब्द , नाम, या ये कह ले , मानव जन्म लेने की एक कड़ी का नाम बाबूजी है, 
माँ और पिता जी पर आज तक अनगिनत कविता, गजल, सुनने, देखने को मिली होगी, उसी में से एक निचोड़ निकालने की कोसिस किया हूँ, अपने दिवंगत बाबूजी के बारे में मेरे पास कोई शब्द नही है, उनकी सोच के आस पास भी में न भटक पाया, लेकिन बाबूजी छोड़ के चले गए, आज पिता दिवस पर कुछ लिखने का कोसिस किया हूँ जो बेझिझक बाबूजी आपके मन को छुएगी ।
बाबूजी एक ऐसा शब्द जो शब्दों के बंधन को जोड़ता है, इस शब्द का कोई मोल नहीं अनमोल है।घर की चारदीवारी में अपने बालक लोगो को वह शिक्षा की पद्धति देता है जो दुनिया में एक मिशेल कायम करती है।
आज उसी बाबूजी के ऊपर कुछ चंद लाइन लिख रहा हूँ जो बेहद कम है।

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी।
सबको बाँधे रखने वाला, ख़ास हुनर थे बाबूजी।।

मिश्रौली गांव में उनके जैसा, कद-काठी का कोई न था।
अच्छे खासे ऊँचे-पूरे कद्दावर थे बाबूजी,।।

सजना, सजाना उन्हें न आता, लेकिन हमको सिखाते थे।
कैसे मामा गांव जाते है, खूब शौख से बतलाते थे,।।

गहरी प्यास को जैसे मीठा जल देते थे बाबूजी।
जीवन के सारे प्रश्नों के हल देते थे बाबूजी।।

अब तो अम्मा के सुने माथे पर कोरे पन की चादर है।
अम्मा जी की सारी सज धज और जेवर थे बाबूजी।।

सबके हिस्से शीतल छाया, अपने हिस्से धूप कड़ी।
गर होते तो काहे ऐसे पल देते तुम बाबूजी।।

माँ तो जैसे – तैसे रुखे सूखे टूकड़े दे पायी।
गर होते तो टाफ़ी, बिस्कुट, फल देते तुम बाबूजी।।

अपने बच्चों को अच्छा – सा वर्तमान तो दिए ही।
जीवन भर को एक सुरक्षित कल देते तुम बाबूजी।।

काश तरक्की देखी होती अपने सुरसरि मणि की तुमने।
फिर चाहे तो कन्हा को बोल के इस दुनिया से चल देते तुम बाबूजी।।

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